राह में किसी घायल से कतरा के निकल जाने वाले ,
अब नहीं मिलते उन्हें अस्पताल पहुँचाने वाले .
उन्होंने गरीबी की एक रेखा खींच रखी है ,
जिसमे नहीं आते फुटपाथ पे सोने वाले .
दरअसल यह गूंगों -बहरों की बस्ती है ,
घात में रहते है दरिंदें अस्मत लूटने वाले ,
कोंख से बच निकली हो तो खुश मत रहो मेरी बच्ची ,
बहुतेरे बचे है अभी दहेज़ में जलाने वाले .
खुदगर्जियों ने हमे इस कदर डुबोया है कि,
कोई अहसास नहीं है उबर कर आने वाले .
अत्यन्त हर्ष के साथ सूचित कर रही हूँ कि
आपकी इस बेहतरीन रचना की चर्चा शुक्रवार 30-08-2013 के …..राज कोई खुला या खुली बात की : चर्चा मंच 1353 ….शुक्रवारीय अंक…. पर भी होगी!
सादर…!