मैं रजपुंज, मूढ़ निशान
स्थूल, अगढ़ पाषाण
था जड़मति
थी अधोगति
उसने पकड़ा, उठाया
स्थिर किया, टिकाया
किया छैनी वार, हथौड़ा प्रहार
मैं बिफ़रा, बिखरा छिन्न प्रकार
बड़बड़ाया तिलमिलाया
असह्य लड़खड़ाया
किन्तु
पकड़ पुख्ता, अधि-अधिकार
छूट पाना था बेकार
मान प्रारब्ध, कृपा त्रिपुरारी
सर्जक अधीनता सादर स्वीकारी
जब हुआ हृदय से तैयार
मुक्ति आकांक्षा लगी साकार
अब-
जब-जब झरा-बिखरा
अरूप गया, रूप निखरा
फिरा हाथ
आशीष साथ
चेतन शक्ति
जड़ से मुक्ति
जो लगा था कठोर निर्दयी भारी
था भवभंजक, स्तुत्य हितकारी
उस हेतु दुआ, बन प्रार्थना
बनी सहज वंदना ।