ना सुला बहला के थपकियों से
अभी भूला नहीं मैं हिमाकत तेरी ।
अभी भूला नहीं मैं हिमाकत तेरी ।
कहने भर से कर लिया यकीं उस पर
शातिरपन था उसका या नादानी मेरी ।
गिरा कर आशियाँ, सजा दीं इमारतें
कि नालियों पर आ टिकी जिंदगी मेरी ।
इन्सानियत का तो था रंग एक ही
मज़हब में डूबा कि बदल गई रंगत तेरी ।
पिसता रहा निचुड़ता रहा आखिरी बूंद तक
आखिर गन्ने की सी जो थी, फ़ितरत मेरी ।
पसीने सा टूटा मैं तोड़ने को चट्टान
बिखर कर फ़िर जुड़ा, बुझाने को प्यास तेरी ।