मेरे शहर में है एक अलसाया हुआ बाज़ार ,
महंगाई की मार से मुरझाया हुआ बाज़ार ,
सड़कें बोलती है बहुत तो गलियां है खामोश ,
हादसे के गवाह सा पथराया हुआ बाज़ार ,
कोई जुलूस निकला है या है चक्का जाम,
लुट जाने के डर से घबराया हुआ बाज़ार ,
फुटपाथ छिप गए है भीड़ सडकों पर देख के
अपनी ही कैद में कसमसाया हुआ बाज़ार
अमन का जो मसीहा था वही निकला दुश्मन
अपाहिज सा लाचार तिलमिलाया हुआ बाज़ार
वाह . बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति
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धन्यबाद सक्सेना जी ,
बहुत सुन्दर काव्यकृति!