सुनाया जख़्म-ए-दिल जिसको,वो कोई मसखरा निकला
फरिश्ते की शकल मेँ वो,कोई ज़ानी बुरा निकला।।
अराइश के पलोँ मेँ की मुहाजिर सोचकर खोटा,
कभी फेँका था जिसको फिर वही सिक्का खरा निकला।।
तिलस्मी नस्ल रहने लग गयी,इन्साँ की शक्लोँ मेँ,
वो बाहर दूसरा निकला,वो अन्दर दूसरा निकला।।
मुकम्मल है जिसे अज़मत,वो ही इतना बड़ा साइल,
किया ईमान का सौदा,वो कितना गिरा निकला?
जितने असिन ओ’ स्याह,सब बेदाग छूटे हैँ,
कोई ईमानदिल,इल्जाम मेँ कितना घिरा निकला?
वो बस तकरीर मेँ ही-“हक़ मिलेगा”-रोज कह जाते,
नयी रोज़ी,सिफारिसी नाम से,देखा भरा निकला।।
अज़ीयत की उठी आवाज़ कल नक्कारखाने से,
तिरंगे से ढके अस्मत्,वो कोई अधमरा निकला।।
यहाँ है खुदपरस्ती दर-ब-दर,इन रहनुमाओँ की,
“जगो आवाम!”-कहता कल सुबह,एक सिरफिरा निकला।।
ओ मेरे हमनशीँ! ये वस्ले पल,मैँ फिर जीयूँ कैसे?
तेरी नजदीकियोँ मेँ जब,हमेशा दायरा निकला।।
मजरूह है ‘तूफाँ’ सुनाऊँ सोज-ए-दिल किसको?
वो मेरा यार!मुझसे आज भी,बचकर ज़रा निकला।।
शुभम् श्रीवास्तव ‘ओम’
वाह . बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति
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धन्यवाद आदरणीय सक्सेना जी!