आखिरी अध्याय मेँ,जब स्वास-गति घुटती रही।
नियति चुपचाप,कल की पटकथा लिखती रही।।
एक सोपानोँ से गिरता,कल सितारा फिर रूका,
चाँदनी-आ जाओ प्रियतम! रात भर कहती रही।।
एक पतीले से सुबह को,भूख की खुश्बु मिली,
किसको पता कल भोर तक,वो आँच भर जलती रही?
प्रारब्ध क्या उसको मिलेगा,आज से कुछ भी इतर?
वह बेबसी,जो रात भर आहेँ भरी,रोती रही।।
एक भीड़ है,इन्सान की बस्ती निगलता जा रहा,
ख़ाक मेँ मिलते रहे हम ,खादियाँ हँसती रही।।
परिवेश की परिकल्पना करते कोई थकता रहा,
एक नज़र आँसू भरे, बदला शमाँ तकती रही।।
जो रही कल तक उपेक्षित क्योँ नहीँ प्रतिशोध ले?
एक लहर जो मूक सी सीने मेँ यूँ पलती रही।।
शुभम् श्रीवास्तव ‘ओम’