जिस और उठाता हूँ निगाह, एक शून्य दिखाई देता है।
इस भीषण कोलाहल में भी ज्यों छुपा कोई सन्नाटा है।
ये सन्नाटे की परछाईं यूँ दूर मुझे ले जाती है।
बस अँधेरा छा जाता है, कुछ पड़ता नहीं दिखाई है।
ये अँधेरा, ये सन्नाटा, ये शून्य और ये नीरवता।
क्या यहीं सवेरा है कोई, है यहीं कहीं नव-जीवन क्या?
नीरवता क्या, कोलाहल क्या, क्या दोनों में कुछ अंतर है?
क्या नीरव है क्या कोलाहल, यह तो श्रोता पर निर्भर है।
रवि ढलता तो उगता भी है, अपने पथ पर बढ़ता भी है।
है रजनी कहीं घिरी काली, तो कहीं सवेरा भी तो है।
क्या वही सवेरा ढूंढूं मैं, जो अँधेरे में लिपटा है?
क्या मैं कोलाहल वही सुनूँ, जिसमें छाई नीरवता है?
हाँ शायद वह ही है प्रकाश, जो अन्धे तम से निकला है।
जाऊं जाकर उसमें ढूंढूं, क्या नया सवेरा बसता है।
– हिमांशु