इस बढ़ते शोर-शराबे में फिर वो झनकार सुनाई दी ।
इस ग़म के घोर अँधेरे में फिर पायल वही दिखाई दी ।
उन गोरे-गोरे पैरों में वो पायल लिपटी चांदी की,
यों मचली, दमकी देख मुझे ज्यों घन में चमकी बिजली-सी ।
ज्यों मंदिर की घंटियाँ कई वे घुंघरू ऐसे लगते थे
पावन पुनीत सी सरगम में जब चलती तो वे बजते थे ।
मैं कान लगाकर सुन तो लूं ये घुंघरू मुझ से कहते हैं
हम तेरी याद दिलाने को दिनभर बजते ही रहते हैं ।
हम मंदिर की घंटियाँ बने बस यही कामना करते हैं,
हो महामिलन तुम दोनों का हम जीवन अर्पण करते हैं ।
– हिमांशु