जीवन की लहरों रुक जाओ,
वापस दौड़ो मुड़कर पीछे ।
फिर बचपन तुम्हे बुलाता है
अपनी कोमल आँखें मींचे ।
बचपन के मानसरोवर को
ऐ मानहंस क्या भूल गए ?
क्या इस प्रवास में आकर तुम
वह जगह पुरानी भूल गए ?
माना रुकने का नाम नहीं,
जीवन में है विश्राम नहीं
मानव-जीवन के ग्रंथों में
है माना अल्प-विराम नहीं ।
राही क्यों चलता जाता है ?
कब ? कहाँ ? किधर ? मालूम नहीं ।
यह कौन सफ़र ? यह कौन डगर ?
चल पड़ा किधर ? मालूम नहीं ।
अब रुक भी जा पागल राही
बचपन ने तुझे पुकारा है ।
दो घड़ी बैठ साये में, तू
तपती धूपों का मारा है ।
जा दुआ मांग जाकर रब से
बचपन न किसी का खो जाये,
जो बचपन तूने खोया है
वो किसी और को मिल जाये ।
– हिमांशु