ग़र समझ मुझको इस क़ाबिल,
तो बता मेरे ख़ुदा ।
पत्थरों के इस जहाँ में,
कांच का दिल क्यों दिया?
ए मेरे दाता मेरे
मौला यही मैंने कहा ।
क्यों नहीं दिल कि जगह पर
तूने पत्थर रख दिया ।
जानकर शीशा इसे
हर बार तोड़ा ये गया ।
पत्थरों के इस जहाँ में,
कांच का दिल क्यों दिया?
शीशा-ए-दिल मोल तेरा
है यहाँ कुछ भी नहीं ।
हर तरफ़ पत्थर ही पत्थर,
दिल कहीं दिखते नहीं ।
दिल नहीं कुछ कांच के
टुकड़े बचे हैं ए ख़ुदा ।
पत्थरों के इस जहाँ में,
कांच का दिल क्यों दिया?
दुनिया है ये पत्थरों की,
दिल की ये बस्ती नहीं ।
यहाँ दिलवालों की आँखें,
रोती हैं हंसती नहीं ।
कहकहों के इस जहाँ में,
आँख को नम क्यों किया ।
पत्थरों के इस जहाँ में,
कांच का दिल क्यों दिया?
कांच की तक़दीर है बस
फ़ासले ही फ़ासले ।
दो घड़ी देखा उसे और
बन सँवर कर चल दिए ।
शीशा-ए-दिल बस यही
तक़दीर लेकर तू जिया ।
पत्थरों के इस जहाँ में,
कांच का दिल क्यों दिया?
ग़र समझ मुझको इस क़ाबिल,
पूरी कर दे ये रज़ा ।
कांच का दिल तोड़ दे,
अब दिल बना फ़ौलाद का ।
– हिमांशु