शंख बजे जब समरभूमि में,
रण को वीर तयार हुए I
ठीक उसी क्षण सबल करों से
शर पिनाक सब स्वतः गिरे II
कहा पार्थ ने समरभूमि में,
“अब मैं नहीं लडूंगा I
तुच्छ राज्य के लिए भाइयों
का वध नहीं करूँगा II
वो हैं खड़े पितामह देखो,
द्रोण, कृपा से ज्ञानी I
वही मूढ़ टकराए इनसे
जो उन्मत अज्ञानी II
वही पितामह मेरे यह,
मैं जिनके अंक में खेला I
यह गुरु द्रोण वही, जिनका
मैं सर्वाधिक प्रिय चेला II
कृपाचार्य वह गुरु जिन्होंने
अक्षर-ज्ञान सिखाया I
संभाषण कर रहा आज जो
उसी गुरु की माया II
माँ माद्री के भाई यह,
हैं मद्रराज कहलाते I
हुए अवध्य अतः यह भी
माद्रीपुत्रों के नाते II
कुरुसुत शत्रु हमारे हैं,
पर वे भी अपने भाई I
हों बंध्या गांधारी माता
यह मुझको दुखदायी II
शत्रु एक हाँ शत्रु हमारा,
अंगदेश का शासक I
मंशा यही एक मेरी,
मैं काटूँ उसका मस्तक II
पर क्या एक उसी के कारण
पूर्ण महाभारत हो ?
उस पापी के सर के कारण,
सभी हीन-मस्तक हों ?
नहीं नहीं यह न्याय नहीं,
यह न्याय नहीं हो सकता I
एक शत्रु के कारण सबको
मृत्यु नहीं दे सकता II
नहीं चाहिए मुझे राजपद,
डूबा हुआ लहू में I
शांति और सुख से ताप करना
इससे भला कहूं मैं II
कर सकता कल्याण नहीं,
रण बस विनाश कर सकता I
मंडन में असमर्थ पूर्ण
खंडन पर्याय ही जिसका II
मानवता का परम शत्रु,
यह युद्धभूमि का दानव I
करें पराजित इसे मनुज जब,
तब कहलायें मानव” II
समरभूमि में कौन्तेय जब
यह विचार कर रहे खड़े I
उसी काल श्री मधुसुदन के
मधुरंजित स्वर कान पड़े II
“यह है तेरा क्षेत्र नहीं
क्यों व्यर्थ प्रलाप है करता I
वह है निपट मूढ़ता जिसको
बात ज्ञान की कहता II
क्यों अपनी कायरता को तू
टेक धर्म की देता I
धर्म बहुत विस्तृत है जिसको
समझ नहीं नर सकता II
क्षत्रिय का है धर्म यही
तन-मन रण में ही रत हो I
हर योद्धा का धर्म आज
निर्विघ्न महाभारत हो II
युग-युग तक जीकर भी कायर,
नाम कलंकित करता I
मरे वीर अल्पायु किन्तु वह
सदा अमर है रहता II
तू इनको दे मृत्यु रहा,
यह है बस भ्रम-मरीचिका I
तू आखेटक नहीं वरन
बस शर-पिनाक है उसका II
फिर तेरी सामर्थ्य कहाँ
जो तू इन सबको मारे I
पायेगा तू अमर इन्हें
किंचित भी अगर विचारे II
यह शरीर नश्वर है सबका,
आत्मा अजर अमर है I
उस आत्मा को मार सके
ऐसा ना कोई सबल है II
आत्मा की है आदि नहीं,
ना अंत कहीं आत्मा का I
आत्मा तो चिर शाश्वत है,
है अंश ये परमात्मा का II
आत्मा कभी नहीं मरती है,
ना मारी जा सकती I
मृत्यु उसे हम कहते हैं जब,
आत्मा वस्त्र बदलती II
जन्म-मृत्यु तो शाश्वत है,
शाश्वत है फिर से जीवन I
इस क्रम का ही ज्ञान प्राप्त
करना कहलाता चिंतन II
वे जो तेरे शत्रु-मित्र,
हैं वे सब तो आत्मायें I
हुए अवध्य अतः वे सब
फिर क्यों हम शोक मनायें II
रण ही तेरा धर्म पार्थ,
यह समरभूमि देवालय I
शर-पिनाक हैं धर्मग्रन्थ,
कर आराधना विगतभय” II
सुनकर यह मर्मज्ञ वचन,
फिर तत्पर हुए धनंजय I
उठा लिया गाण्डीव पुनः
नीतिज्ञ कृष्ण की हो जय II
– हिमांशु