सुबह झोँकोँ मेँ इठलाती
तीन रंगोँ की
सुनहरी पट्टियाँ
स्वर्णिम
किरणावलियोँ मेँ
दिन भर खेलती-
मेरे पड़ोस मेँ।
स्वतः तैर जाती
होठोँ पर
जन-गण-मन
शीश झुक जाता
स्वतः
देशप्रेम की
भावना मेँ।
किन्तु आहत होता हूँ
जब यह
गोधूलि के बाद भी
विश्राम नहीँ पाता
कोई रोज ही
इसे उतारना
भूल जाता है।
टँगा रहता
महीनोँ-महीनोँ
बितते जाते
अगस्त्य का पन्द्रहवाँ
और जनवरी का
छब्बीसवाँ दिन।
न जाने क्यो?
मैँ ऐसा होने से
रोक नहीँ पाता
कहीँ मैँ
राष्ट्रद्रोही तो नहीँ?
शुभम् श्रीवास्तव ‘ओम’