सभी खुश हों, तो ही मुस्काना – मुझे अच्छा लगता है
उदास हो कोई, तो उसके दुःख में दुःख जताना – मुझे अच्छा लगता है
वादा करतें हैं लोग और तोड़ देते हैं, पर
वादा करना ओर फिर निभाना – मुझे अच्छा लगता है
गल्तियाँ करने के बाद नजरें चुरातें है सभी अक्सर
पर गल्ती होने पर उसे मान जाना – मुझे अच्छा लगता है
चुप-गुमसुम- उदास-अकेला, क्यूँ काटू जिदगी
अरे! भाई, लोगों से मिलना-मिलाना – मुझे अच्छा लगता है
राह में उनकी फूल बिछाना मुझे कतई पसंद नहीं
पर उनके रास्ते से कांटे हटाना – मुझे अच्छा लगता है
बीवी संग करता हूँ बाते हमेशा मैं बड़ी बड़ी
पर साली संग छुट-पुट बतियाना – मुझे अच्छा लगता है
ससुराल जाना पड़ता है न चाहते हुए भी अक्सर मुझे
मेरा बेटा कहता है कि मेरा नाना – मुझे अच्छा लगता है
रोज, मोहल्ले की नई कहानी सुनकर गुस्सा आता है
पर लैला-मजनू का वो किस्सा पुराना – मुझे अच्छा लगता है
वैसे तो झूठ भी, सच की तरह कहता हूँ मैं
पर कभी-कभी खुद को भी, दर्पण दिखाना – मुझे अच्छा लगता है
कहते हैं कि उसने चोंच दी है तो दाना भी देगा
पर पहले कमाना, फिर खाना – मुझे अच्छा लगता है
आओ पुरानी बातों को भूलकर आगे बढ़े
कुछ नया करें, ये नया जमाना – मुझे अच्छा लगता है
जब भी बात होती है मेरे वतन की कहीं, तो
“सारे जहाँ से अच्छा” गीत गुनगुनाना – मुझे अच्छा लगता है
मशीनों की तरह हो चुकी है यह जिन्दगी हमारी
बापू का वो चरखा चलाना – मुझे अच्छा लगता है
यूँ तो झुका नहीं किसी के भी आगे कभी “चरन” मगर
इण्डिया गेट पर नतमस्तक होकर शीश झुकाना – मुझे अच्छा लगता है
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गुरचरन मेह्ता
आहा !!
क्या बात है !!
यू तो और भी है कवि मगर,
आपकी कविता पड्कर तारीफ करना मुझे अच्छा लगता है !!
मुस्कान जी आपके comments हौसला बढ़ाते है इसलिए सचमुच अच्छा लगता है.
आभार, शुक्रिया, धन्यवाद.
यूँ तो झुका नहीं किसी के भी आगे कभी “चरन” मगर
इण्डिया गेट पर नतमस्तक होकर शीश झुकाना अच्छा लगता है.
kya bat likhi hai sir badhai.