(मुकरी , की परिभाषा मुकरी , का अर्थ मुकरी – मुकरीसंज्ञा स्त्री० [हिं० मुकरना+ई (प्रत्य०)] एक प्रकार की कविता । कह मुकरी । वह कविता जिसमें प्रारंभिक चरणों में कही हुई बात से मुकरकर उसके अंत में भिन्न अभिप्राय व्यक्त किया जाय। इसमें चार चरण होते हैं प्रत्येक में अक्सर १६ या १५ मात्रायें पायी जाती हैं )
(१)
खुसरो की बेटी कहलाये
भारतेंदु संग रास रचाये
कविजन सारे जिसके प्रहरी
क्या वह कविता? नहिं कह-मुकरी!
(२)
बांच जिसे जियरा हरषाये
सोलह मात्रा छंद सुहाये
पुलकित नयना बरसे बदरी
क्या चौपाई ? नहिं कह-मुकरी!
(३)
चैन चुराये दिल को भाये
चिर-आनंदित जो कर जाये
मन की कहती फिर भी मुकरी!
क्या वह सजनी? नहिं कह-मुकरी!
(४)
दो अर्थी है जिसकी वाणी
मुकरे निज से हँस कल्याणी
जीवन रस की छलके गगरी
क्या वह सजनी? नहिं कह-मुकरी!
(५)
जब भी आती ख्वाब दिखाती
मुकरे निज से फिर भी भाती
उसके बिना न हिलता पत्ता
क्या वह सजनी ? नहिं यह सत्ता!
(६)
हम पर उसका पूरा हक रे
नैनों से कह उससे मुकरे
चलती तिरछी राहें सँकरी
क्या वह सजनी? नहिं कह मुकरी!
(७)
जब जब हैं आतंकी आये
बिल में चूहे सा घुस जाये
खो जाए उसकी आवाज़
क्या सखि नेता? नहिं सखि राज!
(८)
खुराफात में जिसका है मन
जिसका उत्तर भारत दुश्मन
दबंगई नित जिसका काज
क्या सखि भाई? नहिं सखि राज !
(९)
दुनिया में जो प्रेम बढ़ावै|
जिसका साथ जिया हर्षावै|
राजनीति में जो है बंदी|
क्यों सखि साजन? नहिं सखि हिंदी!
(१०)
पल में सारा गणित लगाये
इन्टरनेट पर फिल्म दिखाये
मेरे बच्चों का वह ट्यूटर.
ऐ सखि साजन? नहिं कम्प्यूटर..
(११)
बड़ों-बड़ों के होश उड़ाये
अंग लगे अति शोभा पाये
डरती जिससे दुनिया सारी
क्या वो नारी? नहीं कटारी!!
(१२)
रहे मौन पर साथ निभाये
मैडम का हर हुक्म बजाये
नहीं आत्मा रहता बेमन
ऐ सखि रोबट? नहिं मन मोहन!!
(१३)
मोहपाश में नित्य फँसाये
सास-बहू हैं घात लगाये
उलझी जिसमें रहती बीवी
सोना चांदी? नहिं यह टीवी!!
(१४)
जंतर-मंतर धूम मचाये
भ्रष्ट तंत्र को राह दिखाये
चली जोर से जिसकी आँधी
क्या सखि अन्ना? नहिं सखि गाँधी!!
(१५)
दबे पाँव जो चलकर आवे,
हमको अपने गले लगावे,
मन भा जावे रूप विहंगम,
क्यों सखि सज्जन? ना सखि मौसम !
(१६)
आये तो छाये हरियाली,
उसकी गंध करे मतवाली,
मदहोशी का छाये आलम,
क्यों सखि सज्जन? ना सखि मौसम !
(१७)
जिसकी आस में धक् धक् बोले,
जिसकी चाह में मनवा डोले,
दिल से दिल का होता संगम,
क्यों सखि सज्जन? ना सखि मौसम !
(१८)
जिसकी राह तके ये तन-मन,
जिसके आते छलके यौवन,
झिमिर-झिमिर झरि आये सरगम,
क्यों सखि सज्जन? ना सखि मौसम !
(१९)
प्रेम वृष्टि हम पर वो करता,
दुःख हमारे सब वो हरता,
शांत अग्नि हो शीतल मरहम,
क्यों सखि सज्जन? ना सखि मौसम !
(२०)
खग कलरव सुर छंद सुनाती,
प्रात खिले विस्मित कर जाती.
भोर उगे भा जाए सांची
क्या प्रभु किरणें ? नहिं प्रभु प्राची !
(२१)
शीतल चित्त करे भरमाये
मोहक रूप हृदय बस जाये
नेह लिए मुसकाए बन्दा
ऐ सखि साजन? नहिं सखि चंदा!!
(२२)
मन सागर में ज्वार उठाये
रात चाँदनी आग लगाये
नेह प्रीति का डाले फंदा
ऐ सखि साजन? नहिं सखि चंदा!!
(२३)
प्यार हमारा जब भी पा ले
रात चांदनी डेरा डाले
जालिम हरजाई वह बन्दा
ऐ सखि साजन? नहिं सखि चंदा!!
(२४)
रोज रोज जियरा तड़पाये
देखे बिना रहा नहिं जाये
वचन न बोले एक सुनंदा
ऐ सखि साजन? नहिं सखि चंदा!!
(२५)
दिल ये जिसकी चाहे दीद
जिसे देख कर होती ईद
छिपा आज क्यों तम की मांद?
ऐ सखि साजन? नहिं सखि चाँद|
(२६)
बड़े प्यार से जो दुलरावै|
हमको अपने गले लगावै|
प्रीति-रीति में हम हों बंदी|
क्यों सखि साजन? नहिं सखि हिंदी!
(२७)
अलंकार से सज्जित सोहै|
रस की वृष्टि सदा मन मोहै |
मिल जाता है परमानंद |
क्यों सखि साजन? नहिं सखि छंद |
(२८)
परम संतुलित जिसका भार |
गुरु लघु रूप बना आधार |
जन-जन को है जिसने मोहा|
क्यों सखि साजन? नहिं सखि दोहा!
(२९)
मेल जोल जिसका है गहना|
जैसे लिखना वैसे पढ़ना|
पूरी होती जिससे आशा
क्यों सखि साजन? नहिं निज भाषा!