(१)
(कुंडलिया की परिभाषा)
दोहा कुण्डलिया बने, ले रोले का भार,
अंतिम से प्रारम्भ जो, होगा बेड़ा पार,
होगा बेड़ा पार, छंद की महिमा न्यारी,
अंत समापन दीर्घ, कहे यह दुनिया सारी,
‘अम्बरीष’ क्या छंद, शिल्प ने सबको मोहा.
सर्दी बरखा धूप, खिले हर मौसम दोहा..
(२)
योगी बन हो साधना, उर में हो आनंद.
सरस्वती की हो कृपा, तभी सिद्ध हों छंद.
तभी सिद्ध हो छंद, चले अभ्यास निरंतर.
शीश रहे गुरु हस्त, भाव उपजें शुभ अंतर.
मन होगा निष्काम, स्वस्थ होंगा तन भोगी.
नित नव प्राणायाम, करें छंदों के योगी..
(३)
अपनायें कवि छंद ही, हैं यह मन्त्र समान.
नित्य करें अभ्यास यदि, छंद बनें आसान.
छंद बनें आसान. बने मन्त्रों की माला.
शक्ति राम की पूज, सिद्ध हो गये ‘निराला’.
मुक्त बहा रसधार, बाद में, जग में छाये.
बने निराला वही, छंद को जो अपनाये..
(४)
रहिमन तुलसी के समय, मानवता थी शेष.
मानव अब दानव हुए, है यह बात विशेष.
है यह बात विशेष, लोभ मानव को खाये.
हर बंधन से मुक्त, रहे निज पर इतराये.
पिंगल से परहेज, आग में कविता झुलसी.
ऐसे में रच छंद, बनो तुम रहिमन तुलसी..
(५)
कविता साधक आ गए, गंगा तेरे द्वार.
निर्मल मन पावन बने, आपस में हो प्यार..
आपस में हो प्यार, सुमेलित स्नेहिल धारा,
रहे हृदय में धर्म, सुखी हो विश्व हमारा,
पुण्यभूमि हो श्रेष्ठ, तेज छाये सम सविता.
हर रचना हो मंत्र, बँधे छंदों में कविता..
(६)
पिंगल बिना न सोहते, कविताई के भाव.
इससे अच्छा गद्य ही, जिसका भला प्रभाव.
जिसका भला प्रभाव, मान सम्मान दिलाये.
बिन पिंगल का काव्य, हास्य का पात्र बनाये.
छंदमुक्त रच काव्य, निराला बन, क्यों दंगल?
भाव शिल्प यदि साथ, तभी भाएगा पिंगल..
(७)
सविता अम्बर में खिले, छाये सदा प्रकाश.
कोटिश तारों से सजा, यह अनंत आकाश.
यह अनंत आकाश, दिखे ईश्वर की माया.
हैं अनेक ही सूर्य, सदा अनुशासन छाया.
आलोकित जो सूर्य, रची जीवन की कविता.
धर्म और निज कर्म, निभा सम अम्बर सविता..