हम तुम्हारे पास आए, दूर तुम जाते रहे
चार दिन का साथ था पर रोज़ तड़पाते रहे
तुम समझ पाए हमें न हम समझ पाए तुम्हें
कल सुबह होगी नई उम्मीद लगाते रहे
रोक तो कोई नहीं है ख़्वाब जो देखे कोई
ख़्वाब की ताबीर से पर मात हम खाते रहे
सरफ़रोशी की तमन्ना थी न इक ग्राहक मिला
हम मुनादी गो सरे-बाज़ार करवाते रहे
अब ख़लिश औकात अपनी है समझ में आ गई
मूल तो मामूल था बस सूद बढ़ाते रहे.
— महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’
३१ जनवरी २०१३