रहते हैं इस ज़मीन मे अम्नो अमाँ से लोग
करते हैं प्यार गुलशने हिंदोस्ताँ से लोग !
पाते हैं चैन आपके सब आस्ताँ से लोग
चौखट पे तेरे आते है सारे जहाँ से लोग !
अहले आदब कि बज़्म मे मक़बूले आम है
करते हैं प्यार आज भी उर्दू ज़बाँ से लोग !
कैसा ये कहर कैसी तबाही है या खुदा
बिछ्डे हुए है अपनो से अपने मकाँ से लोग !
लगता है कुछ खुलुसो मोहब्बत मे है कमी
क्यूं उठ के जा रहे हैं तेरे दरमियाँ से लोग !
क्या हमनशी का सिह्रर भी चलता है इस तरह
मिलते नही ख़ुलूस से क्यूं अपनी माँ से लोग !
तेरा ख़ुलूस तेरी मोहब्बत को देखकर
जुड्ते गये हैं आके तेरे कारवाँ से लोग !
shayar salimraza rewa