कलम से जो टपकते है,
उन सोचों कों
कविता न समज़ना,
शब्दोंके सहारे बहता हूँ मैं;
मेरे मन, मेरे दिल,
मेरी भावनाओं को
एक शरीर दे रहा हूँ, ताकि
मैं इन्हें बार बार देख सकूं;
आदत है,
सोचों को बिखर जाने की,
हैं ना !!
बह न पाए जो, सुख जातें है,
लफ्ज़ न बने वो लुप्त होते है;
कैसे लुप्त होने दूँ उन्हें !
मेरा अस्तित्व बसा है उनमें,
जीने का मकसद भी छुपा है,
मेरे अनुभवों का ढेर हैं कहीं;
कैसे मिट जाऊं मैं !
कैसे खो दूँ उन जेवरों को !
बड़े शौक से जी रहा हूँ,
और हसरत-ए-दिल है जीना,
इबादत से जारी है मेरी यात्रा;
जीवन की अंतहीन सड़क पर,
कुछ विराम हो जैसे,
चैन मिलता है जब लिखता हूँ;
और चैन से टपकी उन बूंदों कों
छू लेना कभी,
सुकून में भीग जाओगे |
… जनक म देसाई