कुछ नहीं अब गर्दिश-ए-हस्ती में हमको याद है,
याद है तो इक फक़त माशूक का दर याद है.
ज़िंदगी का आशियाँ कैसे करें तामीर फिर,
गुलशन-ए-दिल का हरेक बर्ग-ओ-शज़र बर्बाद है.
जी रहे हैं ये भी है असर-ए-एजाज़-ए-ज़िंदगी,
हस्ती-ए-फानी की वरना कौन सी बुनियाद है.
हो नुमायाँ जिसके शेरों में हकीकत जीस्त की,
मेरी नज़रों में वो शायर आलिम-ओ-उस्ताद है.
मत करो महदूद मजहब मस्ज़िद-ओ-मीनार तक,
गर नहीं कद्र-ए-बशर तो दीन ये इल्हाद है.
आरजूओं ने दिया कुछ भी नहीं गम के सिवा, जो है बाहर क़ैद-ए-रगबत के वही दिलशाद है.
जान लेना खुद को ही हस्ती का मक़सद है “अशोक”, वरना तेरी ज़िंदगी भी बस महज़ उफ्ताद है.
(गर्दिश-ए-हस्ती = cycle or misfortune of life, माशूक = beloved, दर=door)
(आशियाँ = Nest, तामीर = construction, गुलशन-ए-दिल = garden of the heart, बर्ग-ओ-शज़र = leaf and tree)
(असर-ए-एजाज़-ए-ज़िंदगी = effect of the miracle of life, हस्ती-ए-फानी = perishable life/existence, बुनियाद = foundation)
(नुमायाँ = clear/obvious, जीस्त = life, आलिम-ओ-उस्ताद = learned)
(महदूद = limited, कद्र-ए-बशर = respect for humans, दीन = religion, इल्हाद = atheism)
(क़ैद-ए-रगबत = prison of love/desire, दिलशाद = happy)
(उफ्ताद = calamity)