जरा सा और सोने दो |
अभी तो रात बाकी है ||
हो रही आँखें उनींदी ,
स्वप्न में अब डूब जाऊं |
कुछ घडी भूलूं जगत को,
जब दिवा से उब जाऊं |
जरा स्वप्नों में खोने दो,
अभी तक आस बाकी है |
जरा सा और सोने दो |
अभी तो रात बाकी है ||१||
चल दिए अब तुम कहाँ ?
कुछ प्रहर का संग तो हो |
दो घड़ी को और ठहरो,
शून्यता यह भंग तो हो |
जरा सा और जीने दो,
अभी तक साँस बाकी है |
जरा सा और सोने दो |
अभी तो रात बाकी है ||२||
कुछ घडी भूलूं जगत को जब दिवा से उब जाऊं
अद्भुत लिखा है अति सुंदर रचना
धन्यवाद धर्मेन्द्र जी