न बदली चेनाब,
कोहाट भी वहीं का वहीं खड़ा,
तक्षशीला ताने गर्दन,
गवाह हैं सब के सब,
संग की खिलंदड़ी का।
झेलम तुम क्योंकर खींचती हो अपनी ओर-
तेरी स्नेहमयी धार,
शीतल प्यार की याद यकपलक कर जाती आंखें नम,
चेनाब!
कई कई शाम गुजारे तेरे ही गोद में,
गाया किया गीत प्रेम के,
गुस्साया तो उछाल दिए पत्थर तेरे शांत आंचल में,
पर तुम खामोश ही रही।
तब भी मौन प्रवहमान,
ख़ाब में भी नहीं दिखाई देती तू,
क्या हुआ जो तू वहीं की वहीं रही,
न चल पाई,
छोड़ अपना राह,
बहती रही अविरल,
बिन खिन्न।
ओ झेलम!
मेरी बहिन चिनाब!
ख़ामोश तो तुम भी नहीं रही,
बहती रही,
एक टीस समोए अपनी अंचरा के कोर में बांधे,
दिखा न क्या अब भी सलामत है?
कौशलेन्द्र जी ,
यह बहुत सुन्दर कविता है |
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सुभकामनाओं सहित |