फूल मुरझा रहें
लौट अब तो
ये निर्जन पथ होने वाला
क्यूं खडा खामोश
तेरा कुछ तो खोने वाला
हाँ, बना था तू ही उस दिन
सह पथिक
मैं चला था दूर तक संग तेरे
डगमगाते कदम जब
थम गये
ठहरे, ठिठुर-ठहरे
थम गयी थी संास उस क्षण
ना हिले थे अधर
शब्द बोलों में ही उलझे
जो नहीं चाहा
वो चाहा
पास मेरे भटकती आ गई तितली दिवानी
पूछती -पता उन पुष्पों का
जो गये मुरझा कभी के
मुरझा गयी वो शब्द मेरे
और फिर गुमसुम हुई
एक कोने में वो बैठी
और फिर बैठी रही
मैंने देखा- …..
लगा हाल पूछने
कुछ न बोली न हिली वो
खो गयी वो प्रेम पथ पर……………………
याद मुझको आ रहा
वो विजन पथ
वो सृजन पथ
आज से पहले पथिक हम
आज के बाद भी पथिक…
-सत्येन्द्र कात्यायन, एम0एम0(हिन्दी, शिक्षाशास्त्र), बी0एड0, नेट(हिन्दी)
आपकी यह बेहतरीन रचना बुधवार 23/01/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. कृपया अवलोकन करे एवं आपके सुझावों को अंकित करें, लिंक में आपका स्वागत है . धन्यवाद!
बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी …बेह्तरीन अभिव्यक्ति …!!शुभकामनायें.
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