होती है रात, होता है दिऩ
पऱ न होते एकसाथ दोनों
प्रक्रुति में, मगर होती है
कही अजब है यही |
और कही नहीं यारों
होती है हमारी ज़िन्दगी में
रात ही रह जाता है अक्सर
दिन को दूर भगाकर |
एक के बाद एक नहीं,
बदलाव निश्चित नहीं,
लगता सिर्फ में नहीं सोचती यह,
लगता पूरी दुनिया सोचती है|
इसलिए तो प्रकृति को करते बर्बाद
क्योंकि जलते है प्रकृति माँ से
प्रकृति माँ की आँखों से आती आरज़ू
जो रुकने का नाम नहीं ले रही हे |
जो हम सब से कह रहे हे
अगर तुम मुझसे कुछ लेना चाहो
तो ख़ुशी-ख़ुशी ले लो
मगर जितना चाहे उतना ही लेलो |
यह पेड़- पौडे, जल, मिटटी, वन सब
तेरी तरह मेरे ही संतान हे
अपने भाईयों को चैन से जीने दो
गले लगाओ सादगी को मत बनो मतलबी |
लेकिन कौन सुननेवाला है यह?
कौन हमारी मा की आरज़ू पोछ सकत॓ है?