मैं अपनी सोच बदल नहीं पाया तेरे लिए ,
तुझको देखा है मैने बंद कमरे में शिसक-शिसक के रोते हुए।
मैंने ..
तुझे माँ के रूप में पाया था पहली बार ,
तू आंखे नम कर सहती थी सब अत्याचार ।
देखा है,अपनी भोली आँखों से तुझको पिटते हुए ,
मत निकालो घर से , जमीन पर घिसट -घिसट के रोते हुए ,
वो बूढ़ी दादी का तुझे दिन-रात कोसना ,
मेरे पिता का तुझे मारने को दौड़ना .
वो तेरी गोद से मुझे छीन लेते थे ,
माँ, क्यों अँधेरे कमरे में तुझे बंद करते थे?
और तू बनाती पुरे परिवार का खाना ,
फिर क्यों तेरी थाली से रोटी छीन लेते थे?
मेरी बहन को बोझ कहते थे ,
उसे घर की चार दिवारी में कैद रखते थे।
वो ललचती थी ,मेरे हाथो में देख खिलौनों को ,
फिर क्यों उसे जूठे बर्तन सौप देते थे?
मुझे पढने भेजा की मेरी उड़ान ऊँची हो ,
पर क्यों मेरे बहन के नन्हे परों को, चुल्हे में झौक देते थे?
देखा है मैंने तुम्हे पिंजरे की जिन्दगी जीते ,
कभी देखा नही तुम्हे अत्याचारियों से लड़ते.
जब मैं बडा हुआ तो समाज की यही सोच थी मेरे साथ ,
की औरत शीर्र्फ़ अत्यचार सहती है , उठाती `नहीं आवाज .
मैंने भी वही किया जो घर के पुरुषों को करते देखा,
और करते हुए दुराचार उस अबला से ,मैंने कहाँ कुछ सोचा ,
पर अब किसी न किसी को बदलाव लाना है ,
मुझे बड़े होने पर नहीं,बचपन में ही समझाना है ,
की औरत का हर रूप मैं सम्मान करना है ,
उसपर एहसान नहीं, बराबर का स्थान देंना है.
है वो स्वतंत्र अपनी इछा से जीने के लिए ,
उसके पहनावे को देख न चरित्र का आकलन करना है .
जिस दिन यह विचार कर्म में बदल जायेगा ,
उसदिन यह शब्द “बलात्कार”, शब्द कोष से ही मिट जायेगा .
तब फिर कोई बस इस घटना को दुहराने सडको पर दौड़ नही पायेगी,
और तब हर एक महिला निश्चिंत हो, बस की प्रतिझ| करपायेगी ।
रचयिता : अभिषेक उपाध्याय
nice poem