साधु
ढूढ़ रहे हो किसे तुम
साधु
भटक रहे हो
निकल के घर से
जैसे बीच समंदर मे
प्यासे माझी
जल जल देखे
जल को तरसे
मन्दिर मस्जिद
भटक रहे हो
काँप रहे हो
अपने हि डर से
वो तो हैं
यहि कहिँ भी
मिलते नही
कोइ आडम्बर से
देख है वो
यहि आस पास
तेरे दिल और
मेरे सर पे
जा कर तुं
मेहनत,मजदुरी
आयेंगे वो फिर
तेरे भी दर पे
हरि पौडेल
पौडेल जी,
काबिलेतारीफ रचना
बहुत बहुत शुक्रिया अभिराज साहब जो आपको मेरी रचना पसन्द आयी। आशा है अन्य रचनावो को भी एक नजर डालेंगे और प्रतिक्रिया करेंगे।आपको मेरी रचना पसन्द आई,इसके लिए मै आपका बहुत बहुत आभारी हुँ।
धन्यवाद,
हरि पौडेल
होलैंड