कहने को तो बहुत आगे बढ़ चुकी हूँ,
फिर भी जाने क्यों,
उसी चार- दीवारी में, अब भी कैद मैं रहती हूँ !
एक अरसा बीत गया,
उन लम्हों के जीते हुए,
पल भर की भी फुर्सत न हुई,
उसे एक नजर देखने के लिए,
फिर भी जाने क्यों,
इसी चाहत में जलती हूँ !
उसी चार- दीवारी में, अब भी कैद मैं रहती हूँ !
आ चुकी हैं दूरियां,
अब तुम्हारे हमारे दरमियाँ,
फिर भी जाने क्यों,
तुम्हे अपना कहने की, हसरत मैं रखती हूँ !
पलट कर भी कभी,
तुम्हारी ओर नहीं देखा,
फिर भी जाने क्यों,
उसी चार- दीवारी में, अब भी कैद मैं रहती हूँ !
-श्रेया आनंद
(25th Dec 2012)
behad hi gambhir kintu marmik.
धन्यवाद