कभी मुझे भारत माता कह,
मेरा स्वाभिमान बढ़ाते थे !
आज मेरी इज्ज़त से खेल,
अपनी हवस मिटाते हैं !
कभी मेरी लहू का तिलक लगा,
जान पर अपनी खेल कर,
मेरी हिफाज़त करते थे !
आज मेरा खून बहा,
प्यास अपनी बुझाते हैं !
गर्व से सदा ऊचा,
सिर मेरा ये रहता था,
ऐसी संतान है मेरी,
इस बात पर बेहिसाब फक्र था !
टूट गया वो अहम मेरा,
सिर झुक गया शर्म से,
सिसक उठा है रोम-रोम,
बेकल है हृदय-वन मेरा !
कल तलक जहाँ, वीर जन्म लेते थे,
हरा हर दुश्मन को,
माँ-बहनों की रक्षा किया करते थे,
आज वहां फक्त हैवानो का बसेरा है,
जो हवस की आग में,
दिन रात सुलगते हैं,
किसी को न माँ, न बहन समझते हैं !
बेरहमी से इंसानियत का गला घोट,
उसे मर्दानगी कहते हैं !
-श्रेया आनंद
(19th Dec 2012)
सुन्दर प्रस्तुति
धन्यवाद
सुन्दर कविता
dhanywaad ganesh dutt ji