कभी- कभार
जब कभी
मेरी बस्ती में
मुझे कोई
मेरे नाम से
आवाज देता है,तो
मुझे मेरे होने का
तब जाकर
सही अहसास होता है।
खोया-खोया
गुमनाम हूं
किताबों अखबारों से
दब गया हूँ
इन्टरनेट,टी-वी ने
कमरे में कैद कर लिया है।
मोबाईल फोन
कान से चिपक गया है
गला काट प्रतियोगिता
ड़ंस ड़ंस के मार रही
कुछ पाने को
खो सा गया हूँ।
एक हूक सी अपने
अंदर से आवाज देती है
कौन हूं मैं?
कहां हूं मैं!
कश्मीर सिहँ