इस पेड़ में एक बार तो आ जाये समर भी ,
जो आग इधर है कभी लग जाय उधर भी ,
कुछ मेरी अना भी मुझे झुकने नहीं देती ,
कुछ इसकी इजाजत नहीं देती है कमर भी ,
पहले मुझे बाजार में मिल जाती थी अक्सर ,
रुसवाई ने अब देख लिया है मेरा घर भी ,
इस वास्ते जी भर के उसे देख न पाए ,
सुनते हैं कि लग जाती है अपनों की नजर भी ,
कुछ उसकी तवज्जो भी नहीं होती है मुझ पर ,
इस खेल से कुछ लगने लगा है मुझे डर भी ,
उस शहर में जीने की सजा काट रहा हूँ ,
महफूज नहीं है जहाँ अल्लाह का घर भी !!
dil khush kar diya mere bhai ..bahut khoob
Very Nice…
bhaut hi bhavpurn abhiwyakti
वेरी गुद कविता
Achhi ghazal hai.
मुन्नवर राणा की रचनाएँ तो सभी अच्छी है।