साँसों के भारी कोलाहल से, परेशान हूँ मैं..!
उसकी सहर मिटाने को, बहुत बे-उनमान हूँ मैं ।
अनचाहे ग़मों से भर गया है, कूड़ादान दिल का..!
ग़म भी है इतने, सब की नज़र में धनवान हूँ मैं..!
साँसों के भारी कोलाहल से, परेशान हूँ मैं..!
ज़िदगी कुछ इस क़दर व्यस्त कर दी ज़मानेभर ने..!
कि मेरे ही दिल के बंद अलार से, पशेमान हूँ मैं ।
साँसों के भारी कोलाहल से, परेशान हूँ मैं..!
कैसे, क्या और क्यों लिखूँ मैं आत्मकथन मेरा ?
जब की खुरदरी, कोरी क़िताब का बे-उनवान हूँ मैं..!
साँसों के भारी कोलाहल से, परेशान हूँ मैं..!
साँसों के शोरोगुल से निजात पाऊँ तो कैसे?
खुद अपने आप से, अभी तक, अनजान हूँ मैं ।
साँसों के भारी कोलाहल से, परेशान हूँ मैं..!
(शोरोगुल= कोलाहल; निजात= छुटकारा )
(सहर= मायाजाल; बे-उनमान =सामर्थ्यहीन)
(कूड़ादान= कचरा डालने का डिब्बा)
(बंद अलार= हृदयहीनता; पशेमान= दुःखी,शर्मिंदा)
(खुरदरी= कष्टदायक; कोरी क़िताब = नाकाम ज़िंदगी; बे-उनवान = अनामी शिर्षक)
मार्कण्ड दवे । दिनांकः२७-०८-२०१२.