मुफलिसी, लाचारगी , बेचारगी |ऐसी होती है भला क्या जिंदगी ||
काफ़िये बेदम नज़र आते जहां ,कर रही मातम वहां पर शायरी |
रोज़ ढोता हूँ मैं सूरज पीठ पर ,पालता हूँ आग दिल में इक नई |
लोग अब कुछ जागते लगते यहाँ ,जो सियासत में मची है खलबली |
अब तिजारत हो गया मज़हब यहाँ ,या ख़ुदा कैसी इबादत हो रही |
जिस को हमने सर पे बैठाया कभी ,कर रहा वो आज हमसे सरकशी |
लिख गया कागज़ पे अपना हाल तू ,क्या कयामत है तुम्हारी खामुशी |
भूख के मारे को दे तू रोटियां ,फिर सुनेगा वो तुम्हारी शायरी |
फट पड़ेगा ये कलेजा शर्तिया ,दिलजलों से गर करोगे दिल्लगी |
प्रवीण ‘फकीर’