Homeअज्ञेयक्वाँर की बयार क्वाँर की बयार शहरयार 'शहरी' अज्ञेय 14/02/2012 No Comments इतराया यह और ज्वार का क्वाँर की बयार चली, शशि गगन पार हँसे न हँसे– शेफ़ाली आँसू ढार चली ! नभ में रवहीन दीन– बगुलों की डार चली; मन की सब अनकही रही– पर मैं बात हार चली ! Tweet Pin It Related Posts गृहस्थ सुनता हूँ गान के स्वर एक उदास साँझ About The Author शहरयार 'शहरी' Leave a Reply Cancel reply Save my name, email, and website in this browser for the next time I comment.