हक की बातों को भूलाने लगे हैं
किस्से-कहानियों से डराने लगे हैं
अजब रिवाज़ है इस शहर का
दुआ-सलाम से घबराने लगे हैं
हम तो आए थे हाल जानने
नज़रें हमीं से चुराने लगे हैं
हमारी उंगली पकड़ के चले जो
हमें ही आँखेँ दिखाने लगे हैं
लूट-खसोट, धोखा जिनका ईमान
वो तहज़ीब हमको सिखाने लगे हैं
नकारा समझते रहे जो हमें
आज दाँतों से उंगली दबाने लगे हैं
इंसानों की फ़ितरत समझें तो कैसे
लोग मगरमच्छ के आँसू बहाने लगे हैं