कहीं फिर हुआ धमाका आधी रात में
हम जी रहे हैं ज़िन्दगी आतंकवाद में
हम रहते हैं शहर में अक्सर डरे-डरे
कहीं न कहीं छेद है, ज़रूर नाव में
घर का शख्स ही विभीषण निकल गया
यहाँ हर कोई लगा है अपने बचाव में
मैं राम से कहूँ या पुछूं रहीम से
ढूंढता हूँ हल प्रतिदिन संवाद में