खेलते हैं वही लोग खतरों से
जो उदास होते हैं अपने घरों से
कभी बेगुनाहों की जान मत लो
उस्ताद खेलते नहीं कबूतरों से
आदमी बनो, भले ही वक्त लगे
वर्ना बतर है आदमी जानवरों से
माँ-बाप ही डालते हैं उनकी नींव
जो तोड़ते हैं शीशा पत्थरों से
कोई उनसे वफ़ा की उम्मीद क्या रखे
लहू टपकता है जिनके खंजरों से