एक नदी की स्मृति में (मई में बनास देख कर)
देखा मैंने भरी पूरी एक नदी को अचानक सूखते हुए
जीवन में जैसे आ जाते हैं
कभी-कभी प्रसन्नताओं के बाद घोर अवसाद के दिन
वह छोड़ रही थी धीरे-धीरे अपना किनारा
सिकोड़ रही थी अपना जिस्म
किनारे के पत्थरों पर बने पानी के निशानों से ही
देखने वाले अनुमान कर सकते थे-अरे ! कभी यहाँ तक था नदी का जल
पहले वह थमी
फिर कुम्हलाई एक बेल की तरह
फिर बन गई सूखती हुई लकीर
अन्त में वहाँ रह गई सिर्फ रेत
बच्चे उसमें से खोज रहे थे सीपियाँ
लोग पैदल यहाँ से वहाँ रेत में सैर कर रहे थे
मैंने देखना चाहा नदी को
शाम के नीम अँधेरे में पुल से गुज़रते समय
पर वह आखिर थीं कहाँ
नदी
जिस मैं नदी की स्मृति की तरह
जानता था बहुत बहुत बरसों से ?