तुम्हारी बेफिक्र आशंका की
चिलचिलाती हुई छाया से गुज़र कर ठहरा हुआ जाता हूँ
एक खेद भरी प्रसन्नता की तरफ़
हँसती हुई उदास चीजें हैं आसपास
और स्थिर लगती हुई वे गिर रही हैं
जागे हुए सपनों पैदल चलने और खुली नींद की जगहों में
घर के कोने ठसाठस भर गये है किसी निर्वात से
लोग हैं, और नहीं हैं
शब्द के कटे हुए गले में अटकी है एक ख़ामोश चीख़
मेरे सिवाय निकाल सकेगा कौन वह दुखती हुई फाँस ?
पूछता हूँ सबसे, और चुप रहता हूँ
अनजाने गन्तव्यों की तरफ चले जा रहे हैं लोग
ठिठके हुए
दिखते हैं वे ग़ायब होती किसी जगह, किसी नींद, किसी छाया में
तुम्हारे होने, न होने के बीच
अभी-अभी पैदा हुई है
एक मरती हुई याद
मुझे लगता है
इसे तो मैं बहुत पहले भूल चुका।