शहरों में
अब
बहुत कम
दीखते हैं
ताँगे
एक युग था जो बीत गया
चाबुक,
तेरे लिए जिसे करूणा है आज भी
वह घोड़े की पीठ नहीं प्रतीक्षारत
खूँटी है ऊबती हुई
घास कहाँ है
घास
दृश्य में
हरी और स्वादिष्खोई हुई टापें हैं
और
ताँगों के बिखरते हुए ढाँचे
दीमक जिन्हें बहुत चाव से
चबा रही है
मक्खियाँ उड़ाओ
घावों से दयालु बनो दयालु
मक्खियाँ
घास थोड़ी घास हरी और स्वादिष्ट
घोड़ा हर किसी से कह रहा है
दयालु बनने के बजाय
मैं भी
शामिल हो गया हूँ
उन लोगों में
जो यही कह रहे हैं
दयालु बनो, दयालु
एक ज़माना था, जो चला गया
लोग शायद सोच रहे हैं: ताँगों की वजह से