दोपहर का वक्त था वह
पर ठीक दोपहर जैसा नहीं,
नदी जैसी कोई चीज़ भागती हुई खिड़की से बाहर
सूख रही थी
पुलों और पटरियों के शोर को उलाँघता
किसी तंद्रा में कहीं जा रहा था मैं
बाहर
खेतों से उलझ रही थीं झाडियाँ
झाडि़यों से बेलें बेलों पर तितलियाँ तितलियों पर रंग
उन्हें ठहर कर देखने की हम में से भला
किसको फु़रसत थी
दृश्य जैसा हू-ब-हू
वह एक दृश्य था: किसी घाव की तरह ताजा और दयनीय
कछार का छू कर आ रही हवा में थे कुछ
जड़े हुए पहाड़
जिन पर छाई पीली घास
ऐसी दिखती थी जैसे कछुए की पीठ को
किसी ने रेती से घिस दिया हो
लाखों बरस पहले
चिडि़यों को पंख दिये गये थे
वे लोहे के अजगर की रतार से अभिभूत
एक साथ लहराती हुई उड़ रहीं थीं
किसी अप्रिय जि़म्मेदारी के निर्वाह में
लोगों ने अपने घर छोड़े होंगे अक्सर इतिहास में इसी तरह
अकेला कइयों के साथ मैं कहीं चला जाता था
वे क्यों चल रहे थे मेरे साथ
इस अन्तहीन समय में
आखि़र किस भरोसे पर
मैं किससे पूछता भी तो आखि़र किस से
ऊँघते और एक-दूसरे पर गिरते हुए भी वे प्रायः
निर्दोष लग रहे थे
डिब्बे के साथ-साथ अकेले लोग
हालांकि थे वे एक दूसरे से बेतरह
ऊबते