कितनी नावें थी वहाँ
अकेली उचाट प्रतीक्षारत
लौट कर जिन्हें उनमें चढ़ना था
वे यात्री कहाँ गये
दोपहर थी हमारे शरीरों से
रेल की तरह गुज़रती हुई
कुछ अवाबील जिनकी आँखों में सूर्यास्त के पिघलते हुए रंग थे
गोंद था तनों को फोड़ कर बाहर आता
टहनियों पर घोंसले निर्जन
सिकुड़ी हुई गलियाँ भी थीं वहाँ
कुछ उनींदी जर्जर इमारतें
एक नदी जिनकी नींव में न जाने कब से पिघल रही थी
पिछले जन्म में जो सीढि़याँ थीं घाट की
वे पुनर्जन्म के बाद सन् 1987 में नावें बनीं
किनारे पर ठहर कर उन्होंने प्रतीक्षा करने की आदत डाली
वर्षों से तीर्थयात्रियों के लिए वे तपस्यारत ही हैं: अकेली और उचाट
हम जानते नहीं
अब वे क्या बनेंगी इस शाप के उन्मोच
और यात्रियों को पार उतारने के बाद ?