ख़याले नावके[1] मिजगाँ[2] में बस हम सर पटकते हैं ।
हमारे दिल में मुद्दत से ये ख़ारे[3] ग़म खटकते हैं ।
रुख़े रौशन पै उसके गेसुए[4] शबगूँ[5] लटकते हैं ।
कयामत[6] है मुसाफ़िर रास्तः दिन को भटकते हैं ।
फ़ुगाँ[7] करती है बुलबुल याद में गर गुल के ऐ गुलची[8] ।
सदा इक आह की आती है जब गुंचे[9] चटकते हैं ।
रिहा करता नहीं सैयाद हम को मौसिमे गुल में ।
कफ़स[10] में दम जो घबराता है सर दे दे पटकते हैं ।
उड़ा दूँगा ‘रसा’ मैं धज्जियाँ दामाने[11] सहरा[12] की ।
अबस[13] खारे बियाबाँ मेरे दामन से अटकते हैं ।
शब्दार्थ:
- ↑ छोटा वाण
- ↑ पलक
- ↑ काँटा
- ↑ बाल
- ↑ काली
- ↑ प्रलय
- ↑ आह
- ↑ पुष्प चुनने वाला
- ↑ कलियाँ
- ↑ पिंजड़ा
- ↑ अंचल
- ↑ जंगल
- ↑ व्यर्थ