फिर आई फ़स्ले[1] गुल[2] फिर जख़्मदह[3] रह-रह के पकते हैं ।
मेरे दागे जिगर[4] पर सूरते लाला[5] लहकते हैं ।
नसीहत है अबस[6] नासेह[7] बयाँ नाहक ही बकते हैं ।
जो बहके दुख्तेरज[8] से हैं वह कब इनसे बहकते हैं ?
कोई जाकर कहो ये आख़िरी पैगाम[9] उस बुत से ।
अरे आ जा अभी दम तन में बाक़ी है सिसकते हैं ।
न बोसा लेने देते हैं न लगते हैं गले मेरे ।
अभी कम-उम्र हैं हर बात पर मुझ से झिझकते हैं ।
व गैरों को अदा से कत्ल जब बेबाक[10] करते हैं ।
तो उसकी तेग़ को हम आह किस हैरत[11] से तकते हैं ।
उड़ा लाए हो यह तर्जे सखुन[12] किस से बताओ तो ।
दमे तक़दीर[13] गोया बाग़ में बुलबुल चहकते हैं ।
‘रसा’ की है तलाशे यार में यह दश्त-पैमाई[14] ।
कि मिस्ले शीशा मेरे पाँव के छाले झलकते हैं ।
शब्दार्थ:
- ↑ ऋतु
- ↑ फूल
- ↑ घाव
- ↑ हृदय
- ↑ एक पुष्प
- ↑ व्यर्थ
- ↑ उपदेशक
- ↑ मदिरा
- ↑ संदेश
- ↑ निडरतापूर्वक
- ↑ आश्चर्य
- ↑ कहने की शैली
- ↑ बोलना
- ↑ जंगल में भटकना
शनिवार 16/06/2012 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. आपके सुझावों का स्वागत है . धन्यवाद!
बहुत ही खूभसूरत गज़ल!
बहुत बढिया