मैं सोचता हूँ वह बनूँ, जो बनना चाहता है मेरा मन.
कर सकूँ जिससे पूर्ण मैं, अपनी इच्छाओं का चमन..
चढ जाना उस उन्नत शिखर पर, ना रहा है मेरा लक्ष्य.
हो प्राप्त जिससे पर जनों को भी, मैं करूँ वह सब प्रयत्न..
कर सकूँ निज के लिये ही, बस यही नही है पर्याप्त.
उनके लिये भी कुछ कर सकूँ, जिनके जीवन में है अन्धियारा व्याप्त..
मैं सोचता हूँ वह करूँ, जो करना चाहता है मेरा मन.
हो प्राप्त ‘स्व’ को शान्ति, एवं प्राप्त हो ‘पर’ को अमन..
ना चाहता हूँ सफलता के, तथाकथित पायदान चढना.
मेरा तो जीवन ही है संघर्ष, उठना, गिरना, गिर-गिर के संभलना..
जीवन मैं समझूंगा धन्य, यदि पूर्ण कर सका यह सब स्वप्न
हो पूर्ण जन की अभिलाषा, दे सका यदि मैं खुशियाँ चन्द..
दिखना चाहता हूँ उस तरह, जिस तरह है मेरे विचार.
छिप ना सके मुखमंडल पर, कोई गुनाह या चमत्कार..
ना चाहता हूँ व्यर्थ की प्रशंसा, या कोई भी प्रशस्ति पत्र.
डर है कहीं गुम हो ना जयें, इन सबसे मेरा अपना ‘स्वत्व’..
गुणगान हो या आंकलन हो, हो सभी बस कर्म पर.
मनुज हूँ, रहूँ मनुज बनकर, रहूँ सदा एक ‘धर्म’ पर..
प्रार्थना है प्रभु से यही, दे मुझे वह शक्ति व वर.
कर सकूँ जिससे साधना, हो पूर्ण मेरा जीवन व व्रत..
एक धर्म का यहाँ अभिप्राय ‘मनुज धर्म’ से है।
Bahut Umda…