भटकते थे महफिलों की शामें बनकर
कहीं कह्कशे तो कही ग़ज़ल बनकर
कहीं बारिश हुई पड़ी धूप कहीं
मौसम के हो लिए हम नमी बनकर
तुम क्या मिले जैसे ठिकाना मिल गया
बुझती शमा को जैसे परवाना मिल गया
तुम क्या मिले जैसे किनारा मिल गया
तक़दीर की गुलाम थी अपनी पेशानी
लिखी थी हमदर्दियों से अपनी कहानी
किसी मोड़ पर सुने बोल प्यार के जब
बोल पड़ते थे हम उसी की जुबानी
तुम क्या मिले जैसे मंज़र सुहाना मिल गया
एक पैगम्बर पीर को जैसे खजाना मिल गया
तुम क्या मिले जैसे किनारा मिल गया
बहते थे आवारा लहरों की तरह
कभी दरिया तो कभी लश्कर बनकर
सुनते थे सागर मिलता है धारों को
खेतों,बगीचों औ कुचों से निकलकर
तुम क्या मिले जैसे किनारा मिल गया
कठिन दोराहों पर जैसे सहारा मिल गया
गुज़र रही थी ज़िन्दगी यूहीं बेमकसद
तुम क्या मिले जैसे इशारा मिल गया
तुम क्या मिले जैसे किनारा मिल गया