Homeअज्ञेयपराई राहें पराई राहें शहरयार 'शहरी' अज्ञेय 14/02/2012 No Comments दूर सागर पार पराए देश की अनजानी राहें । पर शीलवान तरुओं की गुरु, उदार पहचानी हुई छाँहें । छनी हुई धूप की सुनहली कनी को बीन, तिनके की लघु अनी मनके-सी बींध, गूँथ, फेरती सुमिरनी, पूछ बैठी : कहाँ, पर कहाँ वे ममतामयी बाँहें ? Tweet Pin It Related Posts कालेमेग्दान जो कुछ सुन्दर था, प्रेम, काम्य झील का किनारा About The Author शहरयार 'शहरी' Leave a Reply Cancel reply Save my name, email, and website in this browser for the next time I comment.