स्वादिष्ट होने की हद तक अच्छी
जितनी भी यह शाम है
दिन की कोख से फूटती उसकी एक पत्ती
आँख की जीभ पर रखी जा सकती है।
मेघों से घिरा आकाश
अगर बैंगनी रंग के बोरे में नहीं बदल रहा
तो उसका श्रेय देर से
सड़क को है जिसे सुन रहा मैं, घटनाविहीन।
अभी अभी थमी है वर्षा
और टायरों के पाँव छपना बन्द हो गए हैं
पानी की लिपि में,
भीगी हुई एक चिडि़या कहीं से आ कर
बल्ब पर सो गई है।
रोशनी डूबता हुआ एक स्वर है।
पेड़ हिला-हिला कर अपने सिर बूँदें झटक रहे हैं स्त्रियों की तरह।
वर्षा भी जितनी भी यह शाम है निश्शेष
है, बस है, बस है,
और मुझे इस देखने के लिए नहीं,
स्मृति में लिखने के लिए
सचमुच सचमुच सचमुच बहुत कष्ट झेलना पड़ रहा है
nice poem
by Ghar Ka Vaidya