ठकुराइन के घर पर रातों के पेहरे
वे गुड के शरबत और जामुन की बाली
वो मुन्ना का घर और कल्लू की साली
वो मखमली लोरी से सपने सजोना
और सपनों में पतंग की दुनिया में अपना एक कोना
वो गुडिया की शादी पर मोहल्ले का रोना
बड़े याद आते हैं बचपन के वो दिन
कहाँ गए वो दिन जाते जाते
हाय क्या क्या गंवाया यहाँ आते आते …..
भडेहर पर पल्लू से चंदा को ढकना
सुहागन का सिंदूरी पानी झटकना
पोखरे पर गोरिया का आँचल सरकना
गगरी का कमर और सर पर अटकना
महुआ पर लटके चूलों की खुशबू
चन्दन का मलीदा, गंगा की पियरी
और कोयल की बासंती धुनों का महकना
खो गयी है वो आभा कहीं जगमगाते …
कहाँ गए वो दिन जाते जाते
हाय क्या क्या गंवाया यहाँ आते आते …..
बेल और अमड़ा के शरबत का जादू
वो ललचना इमली की लटकी डाली से
राधा का हलवा कुछ यूँ गुदगुदाय की जैसे
मुंडेरों पर कागा की अटखेलियों से
पगडंडियों पर गिरना, संभलना सरक कर
वो जुगनू पकड़ना खुद बत्ती बुझा कर
वो गोबर में घुसना और ताली बजाना
की जैसे ‘केक’ काटा है जन्मदिन में जाकर
कर दिया है विभोर आज हमें रुलाते रुलाते…
कहाँ गए वो दिन जाते जाते
हाय क्या क्या गंवाया यहाँ आते आते
….. शिवेंद्र
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