अभी तो ज़माना हुआ है दीवाना
अभी तो है रौशन हैं जलवे तुम्हारे
बेसाख्ता भटकेंगे यह पाँव जिधर भी
घरोंदें खिलेंगे बनेंगे चौबारे
अभी तो खिली है धूप बेपर्दा
अभी तो है यौवन महके सावन सा
शरारत भी होगी अगर आखों से अनजाने
लगेगा की बहा है काजल कहीं हल्का सा
जब लगने लगे नज़र आँख के इसी काजल से
तुम इन गलियों में चले आना ……
अभी तो दर्पण बनी हैं दीवारें
धूप भी खिलेगी जैसे बारिश की फुहारें
बेअंदाज़ झूमेगा यह जिस्म जिधर भी
महकेंगे गजरे बेह्केंगे शरारे
अभी तो अदाओं में मखमल घुला है
हवाओं ने आंचल पे सरगम लिखा है
जो होकर मदहोश गिरोगे किन्हीं गलियों में
लगेगा की सजदे में आशिक झुका है
जब शिकवे उठने लगे इन्ही आशिकों से
तुम इन गलियों में चले आना ……
——– शिवेंद्र