कहीं तुम
बज रहीं हैं शेहनाइयां सारी धरा पर मधुर-मधुर,
कहीं तुम पैरों को पायल पहनाय तो नहीं बैठी
चल रहा है कोई हमदम बन कर इन कठिन राहों पर,
कहीं तुम अपना साया मेरे पीछे लगाये तो नहीं बैठी
चिर कर अन्धकार किरणों की छटा चमक उठी है गगन पर,
कहीं तुम गेसुओं में गजरा सजाये तो नहीं बैठी
विरह की वेदना को मिल गयी है मिलन की गुंजन,
कहीं तुम कंठ के माधुर्य से मुझे बुलाये तो नहीं बैठी
झंझावातों के सागर में उमड़ पड़ी सुकून की लहर,
कहीं तुम होठों पे मधुर मुस्कान सजाये तो नहीं बैठी
काली स्याह रात में चाँद भी शर्मा कर ओझल हो रहा है,
कहीं तुम उसे अपना रूप दिखाए तो नहीं बैठी
धुल गयीं हैं सारी दिशाएं इस गोधूली बेला पर,
कहीं तुम अपने कोमल बदन को नहलाये तो नहीं बैठी
न जाने क्यों धड़क रहा है ह्रदय जोरों से,
कहूँ तुम अपना सीना मेरे सीने से लगाए तो नहीं बैठी
इस श्वेत वर्ण आसमान पर क्यूँ छाई है लालिमा,
कहीं तुम आखों में काजल लगाए तो नहीं बैठी
तीव्र इच्छा है मिलन ,कर लो, वरना यही कहूँगा,
कहीं इस समाज से तुम अपनी इच्छा छिपाए तो नहीं बैठी
——-शिवेंद्र