जमाने की ओट लेकर
खबर न चली दिल की
दिल्ली के चोराहे पर खडे
पेड का पत्ता बनकर
आया न पास कोई
साथी बनकर
खडे से रह गये हम
हाथ मालते हुये
नैनो मे जल बिखरा कर
आई थी गुस्सा तभी
फेकी टोपी उतार कर
जूतो को जमीन पर पटका
पैट को फाडकर
फिर क्या रोने लगे
खुद को देखा नग्न जब.
[कवि- अशोक बाबू माहोर ]